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Sunday, September 16, 2018

हरे जिल्द वाली किताब



आज पुरानी संदूक खोली
तो हाथ आया
तुम्हारा दिया हुआ
पहला और आखरी
उपहार .....
वो हरे जिल्द वाली किताब
तुम्हें पता था न
मुझे किताबें बहुत पसंद है
तभी मुझे हैरान करने
डाक से भेजा था,

लिफाफा खोलते वक्त
ये नहीं लगा था
इसमे मेरी ज़िन्दगी
कैद है  ....
मैं बार-बार किताब
खोलती थी पढ़ने
पर हर बार
अटक जाती थी
अपने नाम पर,

वो नाम
जो तुमने रखा था
उसे छूती
उसे देख मुस्कुरा कर
सुर्ख हो जाती
और फिर किताब
बंद कर रख देती ,

घंटों ख्यालों में
खोयी रहती
जाने ऐसा क्या था
उस नाम में ??
वो नाम जो तुमने
अपने हाथों से लिखा था
और उसे छु कर
तुम्हारा प्यार
तुम्हारे हाथों का स्पर्श
तुम्हारे उँगलियों की नमी
पहुँच जाती थी
मुझ तक
जो मेरा न होकर भी
मेरा है  !!!

#रेवा
#किताब





10 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (17-09-2018) को "मौन-निमन्त्रण तो दे दो" (चर्चा अंक-3097) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    राधा तिवारी

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  2. ब्लॉग बुलेटिन की दिनांक 16/09/2018 की बुलेटिन, एक टाँग वाला बगुला - ब्लॉग बुलेटिन “ , में आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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  3. बहुत सुंदर रचना रेवा जी

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